मनोरंजन

ग़ज़ल – विनोद निराश

जख्मे-दिल हॅंस के सहा करता हूँ ,

ज़िंदगी कुछ ऐसे जिया करता हूँ।

 

कही छलक न जाए आँख से आँसू,

होंठो को दबा हूक पिया करता हूँ।

 

आती है जब कभी याद तुम्हारी,

कहकशां में देख लिया करता हूँ।

 

चोट पुरानी उभरी आँख भर आई,

तो रिसते जख्म सिया करता हूँ।

 

क़तरा-क़तरा तरसे ख़ुशी को मन,

मगर सबको ख़ुशी दिया करता हूँ।

 

ख्वाब जो सजाये थे निराश दिल ने,

उनका ही तसव्वुर किया करता हूँ।

– विनोद निराश, देहरादून

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