जबसे हुआ प्रकृति का उपहास,
आती बारिश लेकर हाहाकार।
हैँ लड़ते देखो बारिश और धूप,
दोनों ही करते स्वप्न साकार।
धूप के संग होती हैँ बरसात,
प्रतिस्पर्धा मे दोनों का सार।
आतुरता मे दोनों का हैँ साथ,
देने आते मानव को उपहार।
कही सूखा और कही बरसात,
मची हैँ त्राहि त्राहि की पुकार।
उजड़ते जाने कितने घर बार,
बिचलित मानव जीवन सार।
धरा पर फैला हैँ अत्याचार,
छल रहा मानव प्रकृति बार-बार।
मत करो तुम प्रकृति खिलवाड़,
सन्देशा देती वो सबको हर बार।
कराने नव जीवन का संचार,
प्रकृति आई संग लेकर तकरार।
– मीना तिवारी, पुणे, महाराष्ट्र