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कविता – रोहित आनंद

आजाद थे आजाद, और आजाद ही रहें,

शत्रु के जुल्म को, कभी वह नहीं सहे।

 

करते नहीं थे वह कभी, किसी से प्रार्थनाएं,

फितरत में नहीं थे, कभी उनके याचनाएं।

 

आजाद को नहीं थे, मंजूर गिड़गिड़ाने,

आते थे उन्हें बाज की, तरह फड़फड़ाने।

 

क्रांति की लौ जलाकर, आवाज उन्होंने दिए थे,

मां भारती के लाल ने, सौगात मां को दिए थे।

 

अल्फ्रेड पार्क में वह, जब कर रहे थे मीटिंग,

जयचंद कोई थे की, जिस ने किए थे चीटिंग।

 

घेरे थे जब आजाद को, उस दुष्ट बाबर ने,

गोली से दे कर उत्तर, साथी को भेजे घर में।

 

चारों ओर शत्रु के मेले, वह रह गए अकेले,

आखिरी समय तक भी, दुश्मन को खूब ठेले।

 

जब अंत में आजाद के, बच रहे थे एक गोली,

मां भारती के लाल ने, खुद खेली खून की होली।

 

भारत के नौजवानों में, बन रक्त आप बहें,

आजाद थे आजाद, और आजाद ही रहें।

– रोहित आनंद, बांका,  मेहरपुर, बिहार

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