नहीं विश्वास कर्मठ को रहे आँसू बहाने में,
लगन, श्रम, धैर्य से होता सफल वह लक्ष्य पाने में।
सृजन के रूप ढ़ेरों हैं सृजन क्षमता सभी में है,
निपुण होती सजगता प्राय सोये गुण जगाने में।
बना लेता कृषक उर्वर धरा बंजर नहीं रहती,
पसीना काम आता है बहारों को बुलाने में।
समय की चाल पढ़ पाना नहीं संभव यही सच है,
नहीं जो आज में जीते वही हँसते जमाने में।
न भूले बात जन गण यह विधाता शासकों का वह,
निभाये भूमिका अपनी उचित शासक बनाने में।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश