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पानी तेरी गजब कहानी – हरी राम यादव

neerajtimes.com – पानी पृथ्वी पर प्रकृति द्वारा प्रदत्त  एक अनमोल उपहार है। इसके बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर बनता है। हमारी  पृथ्वी पर तीन चौथाई जल तथा एक भाग जमीन है। पृथ्वी के हर जीव जंतु को पानी की आवश्यकता होती है ।  यह हमारे जीवन के लिए कितना जरुरी है इसके  महत्व को ध्यान में रखते हुए रहीम दास जी ने लिखा है:  रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सख सून। पानी गये न ऊबरे मोती, मानुष, चून। इसका अर्थ यह है कि हे ईश्वर इस पृथ्वी पर पानी को जरुर रखिए,  पानी के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। पानी के न रहने पर न तो मोती जैसा बहुमूल्य रत्न  पैदा हो सकता है और  न ही मनुष्य तथा चूना जीवित रह सकता है।

इस पृथ्वी की रचना भी पानी के कारण ही सम्भव हुई है। यह पृथ्वी आग का एक दहकता हुआ गोला थी, लेकिन लगातार पानी की वर्षा के कारण ही यह ठंडी होकर आज  जीवनदायिनी बनी हुई है। पृथ्वी पर जीवन का पूर्वज अमीबा  भी पानी में ही उत्पन्न हुआ। पानी का महत्त्व इतना ज्यादा है कि पानी के ऊपर बहुत सारे  मुहावरे बने हुए हैं जैसे पानी पानी होना, पानी फेरना, कौन कितने पानी में है,  चुल्लू भर पानी में डूब मरना,  दूध का दूध पानी का पानी होना,  पानी उतर जाना आदि । यहाँ तक की मनुष्य के शरीर में भी पानी की मात्रा 65 प्रतिशत तक होती है। मनुष्य के शरीर की रचना में पानी की उपस्थिति को बताते हुए गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा है : छिति , जल, पावक गगन, समीरा।  पंच रचित अति अधम शरीरा ।।

पानी की समस्या को देखते हुए हमें इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि पृथ्वी के तीन चौथाई भाग पर पानी होते हुए भी पेय जल की समस्या क्यों गहराती जा रही है? कारण यह है कि पृथ्वी पर पाया जाने वाला ज्यादातर  पानी खारा है। इस  पानी  का उपयोग न तो पीने के लिए और न ही सिंचाई के लिए किया जा सकता है। पृथ्वी के नीचे तथा ऊपर पाये जाने पाले पेय जल की मात्रा बढ़ते शहरीकरण, आधुनिक जीवन शैली, खेतों में रसायनों तथा उर्वरकों के प्रयोग तथा प्राकृतिक जीवन चक्र के टूटने के कारण कम होती जा रही  है।

हमारे देश के कुछ क्षेत्रों में पानी आसानी से  उपलब्ध हो जाता है इसलिए हमें उसके महत्व का पता नहीं चलता। हमें पानी के महत्व को जानने के लिए राजस्थान  के बाडमेर जैसलमेर, मध्य प्रदेश के चंबल के बीहडों के किनारे बसे गाँवों, उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड , उड़ीसा के कालाहांडी तथा महाराष्ट्र्र के विदर्भ, तथा  छत्तीसगढ़ के उन क्षेत्रों को देखना  होगा जहाँ पर लोग पाँच छः किलोमीटर पैदल चलकर पानी भरने जाते हैं और  अपनी बारी के इन्तजार में 6 से 7 घंटे बैठे बहते हैं। जो पानी भरकर  लाते है वह भी या तो गन्दा  होता है या तो पीने योग्य नहीं होता है।

इन इलाकों  में कुएं खोदना या बोरिंग करवाना आसान काम नहीं है। यहाँ पर जलस्तर 80 से 150 फीट तक नीचे है। यहाँ पर कुंआं खोदने या बोरिंग करने में लगभग 2 से 2.5 लाख रूपये की लागत आती है। इतनी बड़ी लागत लगाने के बाद भी यदि पानी खारा निकल जाता है तो लगायी गयी जमा पूंजी भी पानी में मिल जाती है क्योंकि इस पानी का उपयोग न तो खेती के लिए किया जा सकता है और न ही पीने के लिए किया जा सकता है।

पेय जल की समस्या  का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ता शहरी करण है। लोग तथा सरकारें पानी के स्रोतों कुंआं, तालाब , झीलों तथा पोखरों को पाटकर उनके ऊपर मकान, दुकान, माल, फैक्ट्री, हवाई पट्टी तथा सडकें बनाते जा रहे हैं। इस निर्माण के कारण पृथ्वी का ज्यादातर भाग सीमेंट  तथा कंक्रीट से ढंकता जा रहा है जिससे पानी बहुत कम मात्रा में जमीन के नीचे जा पा रहा है। ज्यादातर बरसात का पानी बहकर सीधे समुद्र में जा रहा है। इस कारण हर क्षेत्र का जलस्तर तेजी से नीचे गिरता जा रहा है और पेय जल की समस्या गहराती जा रही है। जो पानी बिना रूके हुए बहकर समुद्र में मिल रहा है उसके साथ मिट्टी के कण समुद्र में जम रहे है। इससे समुद्र का जल स्तर धीरे धीरे बढ़ रहा है। समुद्र के किनारे बसे शहरों पर जल प्रलय का खतरा बढ़ता जा रहा है।

आज हम नहाने के लिए विभिन्न प्रकार के साबुन तथा कपडों को धोने के लिए डिटरजेंट पाउडर का खूब उपयोग करते है जिनमें ज्यादा झाग निकलती है। घर को साफ रखने के लिए हम फिनाइल या लाइजोल का प्रयोग कर रहे हैं। शौचालय को साफ करने  के लिए हारपिक का प्रयोग कर रहे हैं। वासबेसिन को साफ रखने के लिए उसमें नेप्थलीन की गोलियों डालकर रखते है। यह सभी रसायन  पानी के साथ मिलकर नालियों के माध्यम से नालों , नदियों तथा समुद्र  में मिलते है और जल प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं। दूसरी ओर इन प्रयुक्त रसायनों की कुछ मात्रा मिट्टी  के साथ मिलकर पानी के माध्यम से धीरे धीरे जमीन के अन्दर जा रही है जिससे मिट्टी तथा पानी दोनों दूषित हो रहे हैं। मिट्टी के दूषित  होने के कारण जमीन के अन्दर रहने वाले जीवों की कई प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर है। ज्यादा झाग  वाले साबुन के उपयोग से  ज्यादा पानी बरबाद हो रहा है तथा मि‌ट्टी में खारेपन की मात्रा बढ़ रही है जिससे जमीन की उर्वरकता समाप्त होती जा रही है। यदि हम स्वयं के बारे में ही न सोचकर पृथ्वी के दूसरे जीवों के बारे  में भी सोचें तो ऐसे साबुन या पाउडर का उपयोग न करें जो कपडों को जल्दी साफ करते है तथा ज्यादा झाग  छोड़ते हैं।

हम स्वयं को ज्यादा आधुनिक कहलाने की होड़ में आगे निकलने के लिए पश्चिमी सभ्यता वाले शौचालयों का प्रयोग करने लगे हैं। इन  शौचालयों में साधारण शौचालयों की अपेक्षा 3 गुना ज्यादा पानी लगता  है। हम अपने घरों में दोनों तरह के शौचालयों का निर्माण तो करें लेकिन उपयोग साधारण शौचालय का ही करें। पश्चिमी सभ्यता वाले शौचालयों का उपयोग केवल घर के बुर्जगों के लिए ही करें जो कि बुढापे के कारण ठीक से बैठ नहीं पाते।

पेय जल की समस्या के लिए आधुनिक खेती काफी हद तक जिम्मेदार है। पहले लोग खेती में अच्छी उपज लेने के लिए गोबर की खाद तथा कूड़े कचरे  से बनायी गयी कम्पोस्ट खाद का उपयोग करते थे। खेतों के आसपास पेड़ पौधे होने के कारण उनकी पत्तियाँ तथा टहनियाँ भी सडकर मिट्टी  में मिलती थीं। इनके कारण जमीन नरम बनी रहती थी। मिदटी में खादय पदार्थ मिलने के कारण केंचुए जैसे जीव  जमीज को कुरेदते रहते थे जिससे जमीन में रंध्र बन जाते थे । इन रंध्रों के माध्यम से सिंचाई तथा बरसात का ज्यादातर पानी आसानी से जमीन के अंदर  जाता रहता था और जल स्तर ज्यादा ऊपर रहता था। आधुनिक जीवनशैली और बढ़ती आवश्यकताओं के कारण हमने पेड़ों को काटकर, गोबर तथा कम्पोस्ट की खाद को छोड़कर, खेतों में रासायनिक खादों का प्रयोग कर प्रकृति के जीवन चक्र  को बिगाड दिया  है जिससे वर्षा कम होती जा रही है और वर्षा के सहायक तत्व  समाप्त होते जा रहे हैं।

पानी को बर्बाद करने में एक दशक पूर्व में चलन में आए सबमर्सिबल पंप ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब लोगों को कुँए या हैंडपंप से मेहनत करके पानी भरना होता था तब लोग काम भर को ही पानी उपयोग में लाते थे लेकिन जब से सबमर्सिबल पंप आया है तब से लोग अंधाधुंध पानी की बर्बादी कर रहे हैं । आप मोटी धार से फर्श , कार, मोटरसाइकिल और भैंस को लोगों धोते हुए देख सकते हैं । ठीक इसी तरह चलन में आया आर ओ का पानी भी पानी की बर्बादी में सबमर्सिबल पंप से दस गुना आगे है । इसमे लगभग तीन भाग पानी बेकार नालियों में बह जाता है ।

प्रकृति स्वयं एक उत्कृष्ट अभियंता है। उसने अपनी गति को निरन्तर बनाये रखने के लिए एक जीवन चक्र का निर्माण किया है।  उस जीवन चक्र  से हर जीव  जन्तु जुडा हुआ  है। प्रकृति द्वारा बनाए गए इस चक्र की यदि एक कड़ी टूट जाती है तो सम्बंधित का  निर्धारित कार्य छूट जाता है और उस चक्र  में व्यवधान जा जाता है। आज मनुष्य अपने लिए सुविधा के साधन जुटाने के चक्कर में पग  पग पर प्रकृति के जीपन चक्र को तोड़ रहा  है। क्या कभी हमने फुरसत के दो पल निकालकर यह सोचा कि प्रातः काल हमारे आँगन में फुदकते और चह चहाने वाली  गौरेया कहाँ गई ? वर्षा के दिनों में चारों तरफ रेंगने वाले  केंचुए कहाँ गये ? झपट्टा मारने में माहिर  चीलों का क्या हुआ ? गिद्ध  कौन सी दुनिया में चले गये? छोटी नदियों से सीप, केकडे, शैवाल क्यों गायब हो गये? आज जल की समस्या इसी जीवन चक से परोक्ष अपरोक्ष रूप  से जुड़ी हुई है। हम अपनी जीवनशैली में कुछ बदलाव करके तथा अपनी सभ्यता और संस्कृति के कुछ उपयोगी तथा कारगर उपायों को अपना कर जल की समस्या को काफी हद तक समाप्त कर सकते हैं।

खाली पड़ी हुई सार्वजनिक जमीन में तालाबों तथा पोखरों का निर्माण किया जाय और आसपास के वर्षा के पानी का रुख मोडकर इनकी ओर लाया जाय। जिससे वर्षा का पानी सीधे नदियोँ  तथा समुद्र में न जाये। इससे जल प्रदूषण कम होगा नदियों तथा समुद में जमने खाली गाद कम होगी। इन  जलाशयों के चारों ओर छायादार  पेड़ लगाकर इन्हें सार्वजनिक पार्क के रूप में विकसित किया जाय। इस तरह पानी  तथा प्रकृति का संरक्षण तो होगा ही साथ ही यह हमारे अंदर पनपने वाले तनाव को कम करने में भी मददगार होंगे ।

हम आज अपने आसपास देखें तो पायेंगे कि हर तीसरे  व्यक्ति के पास  एक से ज्यादा मकान है। हमारे देश में एक मंजिला या दो  मंजिला मकाज बनाने का ज्यादा चलन  है। इस तरह से मकान , दुकान या माल बनाने  के कारण पृथ्वी का ज्यादातर भाग सीमेंट और कंक्रीट से ढंकता जा रहा है। जिससे वर्षा का पानी अपेक्षित मात्र में  में जमीन के अन्दर नहीं  जा पा रहा है जिससे जलस्तर में प्रतिवर्ष गिरावट आ रही है। हमें इस दिशा में पहल करने की जरुरत है कि हम बहुमंजिला इमारतों का निर्माण करें। जमीन पर आठ लेन की सड़क बनाने की बजाय सड़क के ऊपर बहुमंजिली सड़क बनायें जिससे जमीन का कम भाग प्रभावित  हो। क्षेत्रीय नदियों पर जगह जगह बांधों का निर्माण किया जाय और  वर्षा के पानी का भंडारण किया जाय। इससे दोहरा  फायदा होगा, एक तो बांध के आसपास के क्षेत्र का जलस्तर ऊपर आएगा  दूसरा यह कि हरियाली को बढ़ावा मिलेगा तथा  पेड़ पौधों तथा पशुओं को आसानी से जल मिलेगा।

शहरों से निकलने वाले गंदे पानी को सीधे नदियों में न डाला जाय। इन्हें शोधित करके कृषि, भवन निर्माण, शीतगृहों तथा बिजली बनाने के लिए उपयोग में लाया जाय। इससे पीने के पानी की उपलब्धता पर व्यापक असर पडेगा। कुछ प्रदेशों में सरकारों ने खेती के लिए मुफ्त बिजली दे  रखी है जिसके कारण लोग अपनी ट्यूबवेल को दिन रात चलाकर खेतों को आवश्यकता से ज्यादा ऊपर तक भर देते हैं। शायद उन्हें यह बात सही तरह पता नहीं है कि ज्यादा पानी देने से खेत में डाली गयी रासायनिक खाद  तथा कीटनाशको का असर कम हो जाता है। हमारी यह धारणा है कि जल्दी जल्दी ज्यादा सिंचाई करने से फसल ज्यादा अच्छी होती है। खेती की सिंचाई के लिए प्रिंकलर या ड्रिप विधि का प्रयोग करके हम पानी बचाने के साथ साथ अच्छी उपज लेकर अपनी आमदनी को बढ़ा सकते हैं।

देश के हर नागरिक को चाहिए की नल को कभी खुला न  छोड़ें, नल खुला छोडने पर पानी आते ही बहने लगता है और काफी पानी बर्बाद  हो जाता है। यदि नल टपक रहा हो तो उसे शीघ्र ठीक करवाना चाहिए क्योंकि बूंद बूंद से भी काफी पानी बह जाता है।  यदि  घर से बाहर कहीं जा रहे हों तो नल को जरूर देखें कि कहीं खुला तो नहीं है। नहाने के लिए बाल्टी तथा पतले मुँह वाले बर्तन का प्रयोग करें।

कपड़ों को धोने के लिए कम झाग वाले  साबुन का उपयोग करें। गाडियों को धोने की अपेक्षा कपड़े से साफ करें। पानी से धोने पर अंदरूनी हिस्सों में जंग लगने की सम्भावना रहती है तथा पानी भी बरबाद होता है। रसोई में से निकलने वाले पानी का उपयोग साग सब्जी की सिंचाई के लिए करें। इससे पानी की बचत होगी। पानी की बचत करने के लिए बच्चों को कक्षाओं में जागरूक किया जाय क्योंकि बच्चे ही कल के भविष्य है। आज के बच्चों के ऊपर ही पानी की यह समस्या विकराल  रूप धारण कर आने वाली है। – हरी राम यादव , बनघुसरा, अयोध्या, उत्तर प्रदेश

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