छुपाते रहे जिनसे हम अपने सारे अश्क़,
थामी जो कलाई तो दरिया में ढल गए।
लगाकर गले से माथे को जो उसने चुमा,
वो दर्द सारे दिल के यूँ पल में ही बह गए|।
फिर बची कहाँ थी अब वह रंजिशें,
पनाहों में उनके वह तो धूल गया।
हम कहां अब सिर्फ रह गए थे हम,
वजूद मेरा सारा उनमें ही घुल गया।
पहचान मेरे खुद के अस्तित्व की हो,
ऐसा चाहते थे जो हम शिद्दत से कभी।
उनके नाम से ही मेरी होने लगी पहचान,
ना जाने कैसे ये सब हमें है भा गया।
हो गया अचानक कैसे यह बदलाव,
शायद प्रेम का दहक गया अलाव।
अब जो हो रहा है उसमें ही रम गए,
आये वो ऐसे पास की वक्त थम गए।
– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर