आज टटोली
एहसासों की
पुरानी अलमारी मैंने,
दिवाली की सफाई में
यादें, जो कैद थीं
अपेक्षाओं के लाकर में
किंचित उपेक्षित, घायल, रिक्त
जीवन के तंतुओं से
बेखबर,
संवेदनाओं की नृशंस हत्या
पश्चात, सोहबत और
उम्मीद की
मृत-चर्म में लिपटी
अविराम सफर के
तराज़ू में तुलती,
कबाडी, बन यज्ञ-ब्रह्मा
पुकारता रहा
मैं दौड़कर फिर चढ़ा आई
एक और आहुति,
कोमल प्रीत के धागों से बुने
मखमली
उन्मादी पुलिंदों की,
और धूं धूं कर
दीपोत्सव के हवन की
भेंट चढ़
शेष रह गई राख
क्योंकि
कबाड़ी के तराज़ू में
तुलने वाली
हर शय कहलाती है
मात्र रद्दी!!
– डॉ मेघना शर्मा, बिकानेर, राजस्थान