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अहिंसा के अवतार: भगवान महावीर – बी.एल. जैन

neerajtimes.com – ई. पूर्व 599 के इतिहास का अवलोकन करें तो प्रतीत होगा कि प्रकृति प्रसन्न होकर घोषणा कर रही है कि हिंसा मिटेगी और अहिंसा का सुखकारी आलोक अवतरित होगा। गणतंत्र संघ की राजधानी वैशाली के कुंडग्राम को तीर्थंकर की जन्मभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुण्डलग्राम के अधिनायक ज्ञातृ वंश के क्षत्रियों में अग्रणी राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला अपने नवजात पुत्ररत्न की प्रतिभा तथा सौन्दर्य देखकर चकित हो रहे थे। भाग्यशाली बालक मां त्रिशला के गर्भ में आया था, उसी दिन से राज्य में सुख-समृद्धि का मनुष्यों को अनुभव हुआ तथा देवताओं ने स्वर्ग से आकर छह मास पूर्व रत्नों की वर्षा की। इसी कारण नवजात शिशु का नाम रखा गया था ‘वद्र्धमान’।

वद्र्धमान का जन्म अलौकिक था। वह मृत्यु के लिये नहीं जन्मे थे, बल्कि मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए जन्मे थे। इस जन्म के संदेश को सुनकर स्वर्गलोक से इंद्र-इंद्राणी ने भी आकर जन्म अभिषेक उत्सव मनाया। वद्र्धमान का जन्म इस दिव्य जीवन का आनंद पाने के लिये और उसे मनुष्यों में वितरण करने के लिये हुआ था। मुनिसागर दत्त की हिंसक भील के तीर से रक्षा करने वाली भीलनी रक्षिका बनकर आगे आई। मुनि के अहिंसा के उपदेशों से भील को हिंसा की प्रवृत्ति बोध हुआ। हृदय में परिवर्तन आया, हिंसा छोड़ दी। भील का अंतर भी बदला, महान बन गया, दया और प्रेम का पुजारी हो गया। यही भील का जीव अहिंसा के भाव को विकसित करता हुआ बालक वद्र्धमान होकर जन्मा था। जन्म से ही ज्ञान विलक्षण था।

निर्भय वीर : एक बार राजोद्यान में बाल सखाओं के साथ खेल रहे थे कि अचानक एक भयंकर सर्प उधर आ निकला। सखा भाग गये, कुमार वद्र्धमान डरे नहीं, फन के ऊपर खड़े होकर नृत्य करने लगे। उन्हें काल पर विजय प्राप्त करना था, साथियों ने देखा सर्प देव कुमार बन गया। देव कुमार ने नमस्कार किया और प्रार्थना की और कहा, आप परीक्षा में वीर, अतिवीर तथा महावीर सिद्ध हुये।

प्रेम का प्रभाव : राजकुमार वद्र्धमान धर्म ध्यान में निमग्न रहते थे। एक दिन नगर में कोलाहल सुना। राज्य का एक हाथी बंधन तुड़ाकर लोगों को पीड़ा पहुंचा रहा है। वद्र्धमान प्रेम से पूंछ पकडक़र ऊपर चढ़ गये। प्रेम से पुचकारा, थपथपाया, हाथी शांत हो गया। भय दूर हो गया। यह सब प्रेमपूर्वक व्यवहार का ही कारण था, लोगों को सुख-शांति प्राप्त हुई।

विवाह प्रसंग : कलिंग नरेश की राजकुमारी यशोदा से राजकुमार वद्र्धमान के विवाह की चर्चा से कुण्डलग्राम आनंदित था। राजकुमार वद्र्धमान वासनाओं के सामने झुकने को नहीं, उन्हें जीतने को जन्मे थे। अत: उन्होंने अपनी मां त्रिशला के आग्रह को भी ठुकरा दिया। विवाह प्रस्ताव से इंकार कर दिया। राजकुमार वद्र्धमान बाल ब्रह्मïचारी रहे। इंद्रियों पर विजय, वासनाओं पर विजय ने ही राजकुमार वद्र्धमान को महावीर बनाया।

विराग की ओर : जब वद्र्धमान तीस वर्ष के युवा हुये तो संसार की विषमतायें दु:ख पहुंचाने लगीं। ऋषभादि तीर्थंकरों का आदर्श जीवन और सुखमयी काल उनके ज्ञान में प्रत्यक्ष दिख गया। कुमार को अपनी अनंत शक्ति का ज्ञान हुआ तथा गृह में अशक्त बने रहने से ग्लानि जागी। वैराग्य की रेखा उनके मन में खिंच गई। वस्त्र-आभूषण, परिग्रह का त्याग कर दिया। राजकुमार के मन पर सत्यम्ï-शिवम्-सुंदरम का इतना गहरा प्रभाव पड़ा, वह वन की ओर तपस्या को चल दिये। उन्होंने नि-परिग्रही जन्मजात मानव का आदर्श जनता के सामने रखा। कहा- तुम किसी पर अधिकार नहीं करते, कोई वस्तु हमारी नहीं है, इसलिये हम स्वाधीन एवं सुखी हैं।

तप, कल्याण का उत्सव : देवों ने भी दिव्य दृष्टि से राजकुमार के विरक्त भावों का अवलोकन किया। कुण्डलग्राम आये नतमस्तक हुये, राजकुमार की सराहना कर ब्रह्मï लोक चले गये। इंद्र ने राजकुमार के महानिष्कमण का दृढ़ निश्चय देखा, पालकी बनाकर वन खंड उद्यान में ले गया, लोक के अज्ञान तम का बोध कराया। राजकुमार सालवृक्ष की साया में आये, परिग्रह त्याग स्वेच्छा से दिगम्बर बने। कितना बड़ा त्याग था शरीर की ममता को भी जीता, केश लोचन किया, वहीं ध्यान लगाकर बैठ गये, उपवास पूर्ण कर ज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान में विकसित हो गया, घट-घट की बात जानने लगे।

बारह वर्ष की घोर तपस्या : महावीर वद्र्धमान ने बारह वर्षों तक घोर तप का अनुष्ठान किया। मौनव्रत पालन कर एकाकी विचरण करते हुये चेतना, अचेतन संपर्कों का सूक्ष्म अध्ययन करते रहे। महावीर पूर्ण पुरुष बनने की साधना में संलग्न रहे। मौन व्रत साधक महावीर नगरों, ग्रामों, वन, कंदराओं में अकेले निडर घूमते रहे। सर्दी, गर्मी, प्यास, अनेक व्याधियों, अनेक बाधाओं को जीतते रहे। तप की अग्नि में अपने अंतर मैल को जलाते रहे, सोने के समान निर्मल और शुद्ध बनाते रहे। सत्य के दर्शन करते गये। निर्भय महावीर आत्मा को निर्मल बनाने के प्रति जागरूक रहे।

उपसर्गों में साधना : योगीराज महावीर अंतध्र्यान में मग्न, किसान अपने बैलों को देखते रहने का निर्देश देकर चला गया। वापसी पर बैलों को उसी स्थान पर न पाकर महावीर पर क्रोधित हुआ, तरुण योगी महावीर क्षमा की मूर्ति बने रहे। ‘क्षमा वीरस्य भूषण’ बैल झाडिय़ों में चरते दिखाई दिये। किसान का चरित्र संपर्क से उज्ज्वल होना था, किसान पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा। ‘मान से मार्दव मान’ अच्छा है और ‘क्रोध से महान है क्षमा’ सभी को अहिंसा का पाठ सिखाया।

दलित दासों और महिलाओं का उद्धार : कौशाम्बी के बाजार में बलवान मानव निर्बल और दीन-हीन मानव को भेड़-बकरियों की तरह बेचते थे। दास-दासी सभी सब प्रकार से अत्याचार चुपचाप सहन करते थे। महावीर ने यह विषमता देखी, विहार करते वह कौशाम्बी पहुंच गये।

एक विलक्षण संकल्प का अनुष्ठान किया। यदि आहार लेंगे तो दीन-हीन दासी कन्या के हाथ से ही लेंगे। महावीर गलियों में घूम रहे थे, बड़े-बड़े लोग हैरान थे। सहसा चंदना नामक दास कन्या ने जयकारा सुना, उसने कोदों के दाने सूप में लिये अपने मालिक के घर से झांका, उसने महावीर को देखा और मस्तक झुका दिया, उसकी ओर मुड़ गये। चंदना ने भक्तिपूर्वक ‘आहार दान’ दिया, दासी के हाथ से एक साधारण भोजन लिया, समाचार फैला, दासी के बंधन टूट गये। महावीर ने दास प्रथा को मिटाने का अद्भुत कार्य किया, राजा ने भी दास प्रथा मिटा दी। विहार करते-करते भगवान महावीर मगध की ओर निकले, वहां मार्ग में कुछ देव अप्सरायें उनके सौन्दर्य को देखकर स्तंभित रह गईं। देवांगनाओं ने हाव-भाव विलास से आकर्षित करने का प्रयोग किया परंतु भगवान महावीर तो ‘बाल ब्रह्मïचारी’ थे। जरा भी विचलित नहीं हुये। देवांगनाओं ने हार मानकर अपनी भक्ति के प्रसून उनके चरणों में अर्पित किये।

महान संदेश : भगवान महावीर ने मानव को उसके अंतर की महान शक्ति का बोध कराया, देवत्व पाने अथवा ईश्वर बनने की शक्ति स्वयं मानव में है, वह ब्रह्मïरूप है। उन्होंने कहा- मानव इच्छा को जीते और निर्वाण के लिये प्रयास करे। इसका मार्ग है। सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान और सच्चा चरित्र ही मोक्ष मार्ग है। समता और समानता को पहचानने का नाम ही सच्चा ज्ञान है। सच्ची श्रद्धा यह है कि मानव केवल शरीर नहीं, चैतन्य आत्मा है। फिर मानव समता का व्यवहार करे तो वह उसका सम्यक चरित्र है। सच्चा नागरिक बनने के लिये इन कर्मों का पालन अनिवार्य है। मनुष्य स्वयं जिये और दूसरों को जीवित रहने दे। अंग्रेजों के आने के पश्चात हिंसा की वृत्ति बढ़ी है। राम, कृष्ण भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, महात्मा गांधी ने भी हिंसा का विरोध किया तथा अहिंसा धर्म का पालन किया।

मगध के सम्राट बिम्बसार, सम्राट नंदवर्धन ने चंद्रगुप्त और खारवेल ने, सम्राट अशोक ने तथा राजा विक्रमादित्य ने अहिंसा धर्म का पालन कर अहिंसा धर्म फैलाया।

भगवान महावीर के उपदेशों को पहचानें, मनन करें, विचार करें और उनका अनुसरण करें। यदि हम सब उनके बताये गये मार्ग पर चलें तो समझा जायेगा कि हम भगवान महावीर की वास्तविक जयंती मना रहे हैं। (विनायक फीचर्स)

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