थोड़ी जरूरी दूरी है करीब आने के लिए,
वो कहते हैं हमसे दे जाओ कोई निशानी।
बिन तेरे हमको है अब कुछ दिन बितानी,
आई थी जब तो बीते थे सोलह सावन,
संग तेरे ही तो बीती है सारी जवानी,
अब भी कहते हो दे जाओ कोई निशानी।
ये दरों दीवारें और ये आंगन ये चौखट,
उन पर स्पर्शों की सभी तरफ है सिलवट,
नरम हाथों से अपने उसे तुम सेंकना,
सुनो कान लगा कर आएगी वो ही आहट।
चाहो तो कर दो शुरू अभी से आजमानी
अब भी कहोगे दे जाओ कोई निशानी।
हमें भी तुम बिन है कुछ दिन गुजारनी,
पर पास मेंरे हैं कई यादें रूहानी,
सर्दी की गुनगुनी धूप वो सावन की बूंदे ,
रखा है समेटे उन सारे लम्हों की कहानी,
तुम ही तो हो मेरी सारी जिंदगानी,
हमारे पास तो है सहेजी धरोहर पुरानी,
यादों के उन सारे पन्नो को पलटूँगी,
तो क्यों मांगू भला हमें दे दो कोई निशानी।
– सविता सिंह मीरा , जमशेदपुर