प्रात: की लालिमा मुख पर छायी,
दोपहरी चमक धूप की हर्षायी,
संध्या काल का अंधेरा छाने लगा,
तीन प्रहर में कितने रूप बदलने लगा,
समय का चलता चक्र रूके न कभी,
दिन – रात के मध्य न जाने कितनी उम्र ढली,
यौवन का उन्माद कभी, प्रौढ़ की जिम्मेदारी
बुढापे का असक्त चेहरा देख मन हुआ भारी,
बालपन का निर्मल चेहरा कहीं मिट गया,
वक्त की परतें दर परतें झुर्रियों में छुप गया,
घंटो दर्पण में मुख निहारते -निहारते,
दर्पण से सहसा इंसान क्यों घबराने लगा,
सांसो से लेकर काया तक स्थाई कुछ नहीं,
सत्य से परिचय समझने लगा जीवन राही
सुदंर है जीवन का हर रूप और रंग,
अभिनंदन करें हर पहलू का हर क्षण,
नवीन से पुरातन, पुरातन से नवीन यही है|
काल चक्र है रोके न रूकेगा यही सही है|
– रश्मि मृदुलिका, देहरादून , उत्तराखंड