कल-कल करती नदियाँ बहतीं,
अपने मन की कहती जातीं।
कंकड़- पत्थर से टकराकर,
हर पीड़ा को सहती रहतीं।
फिर भी सबका हित करने को,
रात और दिन बढ़ती रहतीं।
पर्वत की गोंदी से चलकर,
सागर में मिलने जाती हैं।
पर इससे पहले धरती पर,
हरा- भरा सोना बोती हैं।
प्यारी फ़सलें झूम- झूमकर,
नदियों का यश गाती रहतीं।
चादर जैसे घास बिछी है,
मखमल जैसी कोमल लगती।
जीव -जंतु पानी पीते हैं,
खुश होकर घासों को चरते।
हर दिन खूब चहकती चिड़ियाँ,
बच्चे खुश हो खेला करते।
ऐसी अपनी नदी सुहावन,
ऊपर से नीचे बहती है।
हम भी परहित जीना सीखें
रात- दिवस यह समझती है।
– भूपेश प्रताप सिंह, दिल्ली