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रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी – काजिम रिजवी

neerajtimes.com – रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में हुआ था। अपने समय के प्रसिद्ध कवि तथा उर्दू के विद्वान श्री गोरख प्रसाद इबरत के पुत्र फिराक साहब ने अपने  जीवन में  जो कुछ सीखा वह सब अपने  पिता से ही सीखा। फिराक साहब बनवारपार तहसील बांस गांव जिला गोरखपुर के मूल निवासी थे। प्रारंभिक शिक्षा उस समय के रीति- रिवाजों के अनुसार उर्दू और फारसी की घर पर ही हुई। तत्पश्चात् मॉडल स्कूल और मिशन स्कूल गोरखपुर में शिक्षा प्राप्त करने के तत्पश्चात् वे राजकीय जुबली स्कूल में दाखिल हुए और वहीं से 1913 में हाई स्कूल फिर इण्टर मीडियट की परीक्षा पास करने के  पश्चात् उच्च शिक्षा हेतु इलाहाबाद चले गए।

29 जून 1914 को उनका विवाह अपने समय के विख्यात जमींदार बिन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। स्नातक शिक्षा के पश्चात 1918 में फिराक साहब ने आई.सी.एस. (भारतीय प्रशासनिक सेवा) की परीक्षा पास की, लेकिन 1918 का वर्ष बड़ा ऐतिहासिक वर्ष था। इस समय अंग्रेज पूरे भारत में मनमानी पर उतारू थे। महामना पं. मदनमोहन मालवीय, भारत रत्न ड़ॉ भगवानदास, महाकवि फायज बनारसी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण, गोविंद वल्लभ पन्त सरीखे नेता अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिए एड़ी- चोटी का जोर लगाए हुए थे। भारतवासी महात्मा गांधी के आह्वान पर करो या मरो पर तुले हुए थे। फिराक साहब के जीवन पर भी इन नेताओं के कार्यों का गहरा प्रभाव पड़ा और यही कारण था कि उन्होंने आई.सी.एस. की नौकरी को लात मार दी।

इलाहाबाद में रहने के कारण  वे पं. जवाहरलाल नेहरू के निकट आए और वह नेहरू के साथ देश की आजादी के संघर्ष में कूद पड़े। देखते ही देखते वह जवाहरलाल के घनिष्ठ मित्रों में से एक हो गए। स्वराज्य भवन का दरवाजा उनके लिए सदा खुला रहा।

इसके बाद फिराक साहब उच्च कोटि के राष्ट्र भक्त उर्दू कवि के रूप में सारे देश के सामने उभरे। फिर क्या था एक तो आई. सी. एस. की नौकरी को लात मारना और दूसरे कविता के माध्यम से अंग्रेजों के विरुद्ध आग उगलना। ये दोनों ही बातें अंग्रेजों को अखरी। जो काम तलवार न सकी थी वह काम अब फिराक साहब की कविताएं कर रहीं थीं। अब अंग्रेजों से न रहा गया और उन्होंने फिराक साहब को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। फिराक साहब के सीने में भी देश के लिए कुछ कर दिखाने की लालसा थी। जेल में भी उन्होंने अपना रंग दिखाया और वहां देश भक्त कैदियों को अपने आग उगलते गीत लिखकर दिए। जब जेल में उन कैदियों ने इन गीतों को एक साथ गाना  शुरू किया तो सारी जेल में हड़कम्प मच गया। रात में अंग्रेज जेलर का सोना हराम हो गया। सजाएं बढ़ती रहीं गीत गाने वालों की आवाजें और तेज होती गई। अंत में तंग आकर अंग्रेजों ने फिराक साहब को जेल से रिहा कर दिया। एक वर्ष की सजा काटने के पश्चात् जब वह रिहा हुए तो उन्होंने अपने आपको पूरी तरह कांग्रेस पार्टी के कार्यों में झोंक दिया। महात्मा गांधी ने जब अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया तो फिराक साहब ने उसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उन्होंने शिक्षा जगत के लिए  भी कुछ करने की ठानी। पहले क्रिश्चियन कालेज लखनऊ, फिर सनातन धर्म कालेज कानपुर में अध्यापन कार्य किया। बाद में 1930 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जो उस समय सारे देश के विश्वविद्यालयों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता था, में अंग्रेजी विभाग के प्रवक्ता नियुक्त हुए। जहां वे 1958 तक सेवा कार्य में लगे रहे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय को फिराक साहब जैसा विद्वान मिला यह विश्वविद्यालय के लिए सौभाग्य की बात है।

1918 का समय जहां देशभक्तों के लिए महत्वपूर्ण रहा वहीं इस दौर में उर्दू साहित्य में महाकवि फायज बनारसी और अमीर मीनाई संपूर्ण भारत में छाए हुए थे। यह लोग उर्दू साहित्य के अनमोल रत्न थे और पूरे देश के उर्दू साहित्य में इन लोगों का सिक्का चलता था। जब फिराक साहब का उर्दू साहित्य में प्रवेश हुआ तो वह समय बड़ा ही नाजुक समय था। फायज बनारसी और अमीर मीनाई के सामने किसी का टिकना आसान न था लेकिन फिराक साहब ने बड़े ही साहस के साथ उर्दू साहित्य में प्रवेश किया और अमीर मीनाई के साथ  वैसा ही इन्साफ  किया जैसा गालिब के साथ हाली ने किया था। बताया जाता है कि वाराणसी में 1925 में मदनपुरे में एक बहुत बड़ा अखिल भारतीय मुशायरा महाकवि फायज बनारसी के शिष्य मुन्शी गनी और मुन्शी बेताब ने आयोजित किया था। वाराणसी की यह बहुत पुरानी परम्परा रही है कि यहां के विद्वान जब तक किसी सार्वजनिक मुशायरे में किसी शायर की रचना को सुनकर उसको स्वीकृति नहीं देते तब तक वह  शायर नहीं कहलाता।

मदनपुरे के इस मुशायरे की चर्चा दूर- दूर तक थी। इसमें अपने समय के प्राय: सभी विद्वान मौजूद थे। इस आयोजन की अध्यक्षता महाकवि फायज बनारसी स्वयं कर रहे थे। बताया जाता है कि इस समय फिराक साहब की आयु मात्र 29 वर्ष की थी, लेकिन उन्होंने वहां जो अपना कलाम प्रस्तुत किया वह इतने ऊंचे स्तर का था कि समारोह की अध्यक्षता कर रहे महाकवि फायज बनारसी को भी उनकी पीठ थपथपानी पड़ी। बस यहीं से उन्हें एक राह मिली। वे जो आगे बढ़े तो  बढ़ते  ही चले गए। एक के बाद एक कलाम कहते रहे और उर्दू  साहित्य में अपना स्थान दिनों- दिन ऊंचा करते रहे। यूं तो उर्दू साहित्य को जौक, मोमिन, बहादुर  शाह जफर, मीर, गालिब, अमीर मीनाई, मुंशी प्रेमचन्द, जिगर मुरादाबादी, फायज बनारसी, अकबर इलाहाबादी आदि अनेक विद्वानों ने अनमोल भेंट दी है लेकिन फिराक साहब ने सन् 1918 से 1982 तक जो साहित्य दिया है उसे उर्दू साहित्य कभी भूल नहीं सकता। पं. जवाहर लाल नेहरू ने भारत के आजाद होने के पश्चात्  फिराक साहब को जो स्थान दिया कोई  अन्य  न पा सका। फिराक साहब गालिब, दाग और जिगर के बाद उर्दू गजल के जादूगर थे। उनके कलाम में ऐसा जादू था जो सर चढ़कर बोलता था। यही कारण था कि देश के जिस अखिल भारतीय मुशायरे में फिराक साहब न होते वो मुशायरा पूरा न कहलाता।

संभवत: बात 1960 की है काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग ने एक अखिल भारतीय मुशायरे का आयोजन किया। जिसमें उस समय के सभी उच्चकोटि के शायरों ने भाग लिया। जहां तक मुझे याद है कि इस मुशायरे में प्रख्यात उर्दू शायर जिगर मुरादाबादी ने भी भाग लिया था। जिगर साहब ने  शायद इसके बाद फिर किसी मुशायरे में भाग नहीं लिया क्योंकि उसी वर्ष उनका निधन हो गया। जिन दिनों उनकी सेहत ठीक थी और वह प्राय: उच्चकोटि के मुशायरों में जाया करते थे। मैंने प्रथम बार फिराक साहब को काशी में देखा और उनका कलाम सुना। उनके पढऩे का अंदाज  बड़ा निराला था। जो कलाम प्रस्तुत करते वह दिल की गहराइयों में समाकर लिखा जाता और जब सार्वजनिक रूप से वह कलाम लोगों  को सुनने का मौका मिलता तो लोगों के दिल में समा जाता।

फिराक साहब के कलाम की प्रशंसा डॉ. राजेंन्द्र प्रसाद, डॉ. जाकिर हुसैन, पंडित जवाहरलाल नेहरू सहित देश के प्राय: सभी उच्चकोटि के विद्वानों, साहित्यकारों और कवियों ने समय – समय पर की है। उनसे सभी लोग प्यार करते  थे। उन्होंंने अपने जीवन में अनमोल गजलें लिखीं है। हर गजल अपनेे आप में अद्भुत हैं। उर्दू साहित्य में गालिब के बाद यदि गजलों को  श्रेष्ठ स्थान  दिलाने का श्रेय किसी को है तो वह फिराक साहब को है। उन्हें उर्दू भाषा से बड़ा लगाव रहा। उन्होंने इस भाषा को जो स्थान दिलाया उसे कभी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने स्वयं एक अवसर पर कहा था कि बिना उर्दू भाषा के फिराक कुछ नहीं।

सन् 1921 में कांग्रेस के प्राय: सभी महत्वपूर्ण नेता गांधीजी के असहयोग आंदोलन के कारण जेल जा चुके थे। उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर देश के प्रख्यात नेता देशबंधु चितरंजनदास आसीन थे। पंडित मोतीलाल नेहरू के आग्रह पर कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन सन् 1921 में इलाहाबाद में आयोजित होना था लेकिन अभी अधिवेशन संपन्न हो भी न पाया था कि अंग्रेजों ने देशबंधु चितरंजनदास को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। डॉ. एनीबेसेन्ट, सरोजनी नायडू, मौलाना मोहम्मद अली, सर हसन इमाम, महामना पंडित मदनमोहन मालवीय सरीखे महान नेता अधिवेशन की तैयारी में लगे हुए थे। इस अधिवेशन की नाकामयाबी के लिए अंग्रेजों ने एड़ी – चोटी का जोर लगाया। सांप्रदायिकता का बीज भी बोने का प्रयास किया। लेकिन कांग्रेसियों ने देश के विख्यात हकीम अजमल खां को कांग्रेस का निर्विरोध अध्यक्ष चुनकर उनकी अध्यक्षता में इलाहाबाद में ही धूमधाम से कांग्रेस अधिवेशन कर अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करने की प्रतिज्ञा की। फिराक साहब ने इस अधिवेशन को बड़े करीब से देखा। इसमें बढ़ – चढ़कर हिस्सा लिया। यहीं से उन्हें राष्ट्रीय स्तर की ख्याति मिलनी शुरू हुई । उन्होंने कांग्रेस के उच्च नेताओं जैसे लाला लाजपतराय, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आदि के विचारों को मनन कर बड़ी ही गहराई से न केवल अपने जीवन में उतारा वरन्  पूरे तौर से उसका अनुसरण भी किया। इस अधिवेशन मेें लोगों ने महात्मा गांधी के विचारों को एक उद्देश्य मानकर देश के लिए जीने और मरने की ठानी। जिसका परिणाम यह हुआ कि जब 1923 में बेलगाम में कांग्रेस का अगला अधिवेशन हुआ तो उसमें महात्मा गांधी पहली बार सर्वसम्मति से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। फिराक साहब को इलाहाबाद का माहौल रास आया। उन्होंने राजनीति के अतिरिक्त यहां पहले शिक्षा के क्षेत्र में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया। फिर साहित्य के क्षेत्र में वह पनपे। उन्हें राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, सर तेजबहादुर सप्रू आदि  जैसे लोगों की संगत मिली। जिनके साथ रहकर फिराक साहब ने बहुत कुछ सीखा उन्होंने अपनी लेखनी का लोहा सारे देश के लोगों से मनवाया। इलाहाबाद उस समय राजनीति के अतिरिक्त शिक्षा का भी एक बहुत बड़ा केंद्र था  जो उस समय सारे देश को  दिशा- निर्देश  दे रहा था। ऐसे समय में फिराक साहब का व्यक्तित्व भी लोगों के सामने उभरकर आया और अब फिराक साहब सारे देश में पहचाने जाने लगे थे। फिराक साहब ने अपनी शायरी का डंका सारे देश में बजाया। उनको भारत के लोगों से और भारत के लोगों को उनसे गहरी मोहब्बत थी। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता पद्मभूषण फिराक  साहब ने अपने जीवन में सरकारी व गैर सरकारी स्तर के वह सभी महान पुरस्कार पाए जिसके वह योग्य थे।

फिराक साहब ने अपने जीवन में दाग देहलवी और नूह नारवी के काव्य को बहुत पसन्द किया। उन्होंने उनके काव्य को अपने दिल में भी जगह दी। फिराक साहब ने अपने जीवन मेें जो कुछ लिखा वह आज एक महान दार्शनिक धरोहर है। जब 3 मार्च 1982 को दिल्ली के एक अस्पताल में उनका निधन हुआ तो वहां पहुंचने वाले सभी लोगों को गालिब के शागिर्द अल्ताफ हुसैन हाली का वह शेर याद आया।

‘ बुलबुले हिन्द मर गया हाय – हाय।

जिसकी थी हर एक बात में एक बात।’

और यह बात सही भी थी उनका अंदाज -ए बयां निराला ही था, उन्होंने साहित्य को जो कुछ दिया है उस पर सालों तक शोध किया जा सकता है। आने वाली पीढिय़ों को जब फिराक के बारे में कुछ जानने को मिलेगा तो उनको इस बात का बहुत बड़ा सदमा होगा कि काश हमने फिराक को देखा होता।

लेकिन फिराक साहब ही के शब्दों में ‘मुझे जानना है तो मेरी गजलों और नजमों में डूबो, जितनी  गहराई से तुम इसमें डूबोगे उतनी ही गहराई से तुम फिराक को पाओगे’

आज फिराक साहब हमारे बीच में नहीं हैं, उनके नगमें हजारों कानों में गूंज रहे हैं और ऐसा लगता है कि जैसे वह हमारे सामने खड़े हैं। किसी ने सच ही कहा है।

हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है।

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। (विभूति फीचर्स)

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