आँचल में बांध देती थी जाते वक्त वो खोईंछा,
रहती थी जिसकी बेटी और बहु को सदा प्रतीक्षा।
जीरा, दुब, पांच गोटा हल्दी अक्षत और सिक्के चांदी के,
इस भावना का कैसे हो आकलन, कोई क्या करें समीक्षा।
उस खोइंछे में है छिपा आशीर्वाद प्यार हमारे संस्कार,
भरते समय खोइंछे को बह जाती थी विमल अश्रु की धार।
रुंधे कंठ और धुंधलाई आँखों से कर देती लक्ष्मी को विदा,
खोइँछे में संजो कर मान सम्मान पहुँचती फिर पी के द्वार।
हमारी लक्ष्मी के हाथो ही होता सदा दो कुलों का उद्धार,
मनभावन है हमारी संस्कृति और पुरखों के दिए संस्कार।
हमारी इस प्रथा का हमको ही करना होगा सदा सम्मान,
लुप्त ना हो जाए कहीं यह प्रथा यही तो है हमारे आधार।
– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर