देकर गया वो दर्द की झेला नही गया,
महफिल मे उनकी आज तो जाया नही गया।
जलता चिराग आज बुझाया नही गया,
शर्मो हया के बीच मे आया नही गया।
हम जी रहे उमर-ए-खिजाँओ के दर्द मे,
वो दर्द था कि मुझसे सम्भाला नही गया।
छाने लगा नशा भी सनम आज तो बड़ा,
फिर हाले-दिल भी आपसे पूछा नही गया।
तड़फा रहे है आज तो हमको बिना वजह,
महफिल मे फिर भी आपको रोका नही गया।
नासूर सी लगे है रफाकत भी आज तो,
उनका मिला वो जख्म भुलाया नही गया।
– रीता गुलाटी ऋतंभरा, चण्डीगढ