लिखूँ हर रोज ही अपनी , ग़ज़ल गम-ए-निराशा पे।
पढ़ो तुम शौक़ से जीती रही खामोश आशा पे।
कहूँ क्या दिल कि बातें सब, कभी बीती हँसी पल की ।
हमीं फिसले सनम तेरी , जुबाँ मीठी व् भाषा पे ।
अजब उलझा यहाँ जीवन, नहीं चलती मेरी साँसें।
मगर लोगों का क्या हंसते रहे मेरी हताशा पे।
सभी वो ख़्वाब जो बरसों , पले दिल की ज़मी पर थे।
मिटे सब देख कर तेरी , यही बुज़दिल तमाशा पे ।
हवाएं सर्द ये सिहरन, कहाँ दे दर्द को ठंडक
करूँ अब प्यार या नफ़रत, तेरे मातम रुआँसा पे।
– अर्चना लाल, जमशेदपुर , झारखण्ड