मनोरंजन

अब सपने ले रहे विस्तार हैं- रोहित आनंद

सभ्यता और संस्कृति की तरह,

लुप्त हो रहे संस्कार हैं।।

गली-गली में खुले वृद्धाश्रम,

विषय हमारी सोच-विचार हैं।।

 

बड़े पैमाने पर बंटते,

लंगर और भंडार हैं।।

समाज सेवकों की,

हो गई भरमार हैं।।

 

कामवाली के आने से

खिलती दिल की कलियां।।

घर के बड़े-बुजुर्ग,

सब हो गए बेकार हैं।।

 

विदेशों में फलते-फूलते हैं,

ऊंची उड़ान के सपने।।

वतन की माटी से अब,

रहा नहीं कोई लगाव हैं ।

 

अंग्रेजी बोलने पर जमता,

रुतबा और रूआब है।।

हिंदी, संस्कृत बोलने वाला,

लगता अनपढ़ गंवार हैं।।

 

कठिनाइयों में बंटे हैं,

साल के तीन सौ पैंसठ दिन।।

मदर्स डे, फादर्स डे पर,

केवल उमड़ता प्यार हैं।।

 

झुकती थी जो संतान,

चरण स्पर्श करने को।।

अब वो मां-बाप को कदमों में,

झुकाने को तैयार हैं।।

 

जिस देवभूमि पर बिखेरे हैं,

प्रकृति ने सारे मनोरम रंग।।

उनकी मधुरिमा अब इस भू से,

सिमटने को तैयार हैं।।

✍रोहित आनंद, मेहरपुर, बांका, बिहार

Related posts

प्रकृति की सुंदरता – सुनील गुप्ता

newsadmin

ग़ज़ल – विनोद निराश

newsadmin

गीत – जसवीर सिंह हलधर

newsadmin

Leave a Comment