पहली मंजिल का अफसर,
अक्सर लेता ऑफिस सर ।
काम का रहता तीनकारा,
रहता हमेशा थकाहारा ।
कहता कभी झुंझलाकर,
“क्या सब काम हैं,
मेरी ही जीम्मेदारी !!
क्या करता हैं,
दूसरे मंजिल का मॅनेजर ?
मिटींग पर मिटींग दिनभर |
क्या. . क्या.. हमें नही,
परिवार और घर ? ”
प्रश्न उसे अपने मन में,
बहुत बार खलता ।
दूसरी मंजिल के मॅनेजर को,
मन ही मन जलता ।
फिर बना वह मैनेजर,
शिप्ट हुवा दुसरी मंजिल पर ।
बदले बदले से लगे,
उसके तेवर ।
दो Dependent थे ,
अधिकार के निचे ।
खुश था भीतर ही भीतर ।
लेकिन….. लेकिन …..
लगता तब मजबुर ,
जब तीसरी मंजिल का,
Voice President
करता विदेश के टुर ।
वह उसे खलता,
हर किसी को बोलता ।
” हमें हैं काम की सजा .
साहब करते विदेश में मजा । ”
फिर उसके भी मजे का ,
आया वह एक दिन ।
तीसरी मंजिल की कुरसी पर ,
हुआ आसिन ।
होने लगा दील में,
धीन … ताक … धीन ।
.विदेश के टुर होने लगे,
आयें एक दिन ।
फिर भी मन रहता उदासीन ।
चौथे मंजिल पर पीठासीन,
President पूछता ,
टारगेट आयें दिन ।
टारगेट का पूछना,
उसे बड़ा खलता ।
और फिर वह बोलता ,
” साहब का क्या ?
टारगेट हैं बोलना !!
पता नहीं हैं उन्हें,
टारगेट के लिए ,
कितने पापड़ पड़ता बेलना ।
उनका क्या ?
आओं ,बैंठो, मिटिंग करों …
बस् , एक बार हमें मिले मौका,
देखों कैसे लगाता चौका – छक्का । ”
मिला फिर एक दिन,
चौथे मंजिल का मौका ।
मिलें पुरे एक कंपनी के अधिकार ।
काम भी थे नाना प्रकार ।
नीचे की तीन मंजिल भी थी ,
आधिकार के नीचे ।
मारने लगे अपने अधिकार का,
छक्का कभी चौका ।
सब कुछ था मन मुताबिक ।
चल भी रहा था ,
सब All is well I
लेकिन … लेकिन …
पाँचवी मंजिल का MD,
खेलने लगा अपना खेल ।
बार बार बजाने लगा ,
मोबाईल की बेल ।
हर काम में देने लगा,
कुछ ज्यादा दखल ।
नहीं समझ आ रहा था,
दखल का हल ।
दखल का हल थी ,
MD की कुर्सी ।
फिर भगवान की,
कृपा एक दिन बरसी,
मिल गयी भाया को ,
MD की कुर्सी ।
दमदार थी कुर्सी ,
दमदार थी केबिन ।
मन में लड्डू फुटे ।
दिल करें ताक. . धिन. .
केबिन में चारों तरफ,
ग्रुप कम्पनियों के डिसप्ले ।
समझ समझ से समझ रहें ,
यह निर्णय लें की ,वह ले ।
चल रही उधेड़बुन सारी ।
सब कुछ तो चल रहा सही ,
लेकिन … लेकिन …
सुई आकर अटकती वहीं ,
जब जाना पड़ता था ,
छठी मंजिल पर ,
लियें हुए निर्णय पर ,
लेने को सहीं ।
वह उसे मन में खलता ।
CHAIRMAN सहीं करते हुए ,
कुछ ना कुछ बोलता ।
तब उसका मन ,
CHAIRMAN की कुरसी को,
देखकर जब डोलता ।
और मन ही मन बोलता ।
“काश … ! !
यह मुझे अगर मिल जायें ।
तो जिंदगी के सब अरमान ,
पुरे हो जायें । ”
हुये फिर एक दिन ,
दिल के अरमान पुरे ।
दिन में सात बार लियें ,
छठी मंजिल के फेरे ।
दिल करें हिप हिप हुर्रे ।
छत पर जाकर देखें ,
निचे के प्यारे नज़ारे ।
फिर हुये कुर्सी पर आसिन ।
व्यस्तता से भरा ,
रहने लगा दिन ।
दिल भी न करें ,
अब धिन ताक धिन ।
लॉस -प्रोफिट -गुना – भागा कार ।
ना जाने टॅक्स के,
कितने प्रकार ।
जो लग रहा था कुछ आसान ।
आयें दिन उठने लगा ,
सर पर आसमान ।
बार बार गरम होने लगा सर ,
अपने से खुश दिखने लगा ,
पहले मंजिल का अफसर ।
मिलें जीवन में ,
आपको यह सब अवसर ।
ना छोड़ना ,
बस् …..
” खुला आसमां,
खुला समंदर । ”
– प्रदीप सहारे, नागपुर , महाराष्ट्र