आँसुओं के संग दी क्यों ईश ने मुस्कान,
कष्टदायी है बहुत संसार की पहचान।
भाव निर्मल बालमन में जब दिये भरपूर,
द्वेष ईर्ष्या क्रूरता फिर क्यों हुई बलवान।
ऋतु बसंती को वियोगी कर गई बरसात,
बाढ़ सूखे ने किए बीमार कजरी गान।
है अपरमित पास अपने ज्ञान का भंडार,
प्राकृतिक कठिनाइयां ये ही करे आसान।
दूर संस्कृति से न जायें संत देते सीख,
रोक कर रखता रहा ऋतुराज को यह ज्ञान।
है सभी कुछ इस जगत में पारखी हो दृष्टि,
तो गरल भी बन सकेगा सच यही वरदान।
जिन्दगी सावन सहेजे है अगर यह चाह,
कर बुजुर्गों की तरह ‘मधु’ तू प्रकृति सम्मान।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश