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ग़ज़ल हिंदी – जसवीर सिंह हलधर

बागों के माली रखवाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।

कलियों पर कांटों के ताले , अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

भूख प्यास रोटी के लाले, अब से नहीं जमाने से हैं ।

हलधर के हाथों में छाले, अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

मिली कहाँ पूरी आजादी ,खंडित हिंदुस्तान मिला है,

सरहद पर शोणित के नाले ,अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

वातावरण आज भारत का , घुटन भरा बतलाते हैं जो ,

ऐसे नाग देश में काले , अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

बटवारे की पढ़ो कहानी ,लाखों जलकर बुझीं जवानी ,

हिन्दू मुस्लिम रटने वाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

पानी दवा हवा हरियाली , पैसे वालों ने चर डाली ,

बेबस को आँखों में जाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

मेरी वाणी तो दर्पण है , असली सूरत दिखलाएगी ,

कवियों के छंदों में भाले , अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

द्वापर से कलयुग तक देखा , अंधे राजाओं का लेखा ,

संसद में जीजा औ साले, अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

दागी बाघी सदा रहे हैं देता है इतिहास गवाही ,

अँधियारों में दीप उजाले ,अब से नहीं जमाने से हैं ।

 

एक महामारी ने “हलधर”,तंत्र यंत्र सारे परखे है ,

नेताओं के ढंग निराले ,अब से नहीं जमाने से हैं ।

– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून

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