खुद से समझौता करने लगे,
कुछ यूं ही गुजर करने लगे।
मांगी थी ख़ुशी पर गम मिले,
जाने क्यूँ रिश्ते बिखरने लगे।
आरज़ू थी फकत आपकी पर ,
हुए जो तन्हा आहें भरने लगे।
जब से हुए हमनवां रकीब के,
तब से रोज़ खूब सँवरने लगे,
देख कर बेरुखी उनकी निराश,
जीने की चाह लिए मरने लगे।
– विनोद निराश , देहरादून