मैं माँ बोल रही हूँ।
सपनों को खोल रही हूँ
चुन चुन बुनती रही हूँ
एक पोटली सजों रही हूँ
जिम्मेदारियों से निकल रही हूँ
धरोहर सी धर रही हूँ।
मैं कहना चाह रही हूँ
कहूं या ना कहूं?
किससे कहूं सोच रही हूँ
मन को टाटोह रही हूँ
आस पास देख रहीं हूँ
रेत सी फिसल रही हूँ
किसी डोर को पकड़ रही हूँ
मैं थक रही हूँ ।
मैं माँ बोल रही हूँ
चुप्पियों को जगा रही हूँ
उम्मीदों को सुला रही हूँ
टीस तो छुपा रही हूँ
मैं खुद से बता रही हूँ
पद्चाप सुन रही हूँ
धुंधला सा देख रही हूं।
मैं माँ बोल रही हूं
टटोलते टटोलते आ रही हूं
खुद को समझा रही हूं
इस वक्त से अघा रही हूं
इसी वक्त को बुझा रही हूं
मैं क्या चाह रही हूं
सारी आशाएं लुटा रही हूं
मैं क्या मांग रही हूं।
मैं माँ बोल रही हूं
दहलीज पे खड़ी पीछे देख रही हूं
घर आंगन सवार रही हूं
किलकारियों के शोर को दामन में भर रही हूं
मनचाहे सपनो में जोश भर रही हूं
हर वक्त जिनके संग रही हूं
उन्ही से बस कुछ वक्त मांग रही हूं
मैं माँ बोल रही हूं
छुड़ा के हाथ जा रही हूं
जाना तो तय था । हालत देख रही हूं
इस वक्त की पहेली को छोड़े जा रही हूं
ना पैर से जा रही हूं न हाथ लगा रही हूं
बस हाथ और पैरों की बात बता रही हूं
कुछ निशानिया कुछ कहानियां छोड़ें जा रही हूं
सबक लेना , सीख लेना, बस इतना बता रही हूं
मैं माँ बोल रही हूँ।
– ममता सिंह राठौर, कानपुर, उत्तर प्रदेश