बहुत झूठी निकली तुम,
मेरे मुकद्दर की तरह,
झूठा निकला तुम्हारा प्रेम,
तुम्हारे नेह की तरह।
उम्र भर साथ निभाने की कस्मे,
पल भर मे ही तोड़ गए,
ताउम्र का वो साथ,
चौबीस बरस में छोड़ गए।
कभी तुम्हे अपने से दूर न किया,
कभी तुम मुझसे दूर न हुई,
अगणित, अनसुलझी परेशानियों के बाद भी,
कभी जिंदगी इतनी मजबूर न हुई।
हर बात याद बन कर रह गई,
ख़्वाबों की ताबीर अश्कों में बह गई,
सूने घर के हर कोने में बसी,
बस तुम्हारी यादों का जागीर रह गई ।
तन्हाई में जब याद आती है,
मखमली रिश्तों की कशमकश तड़पाती है,
कभी ऊह, कभी आह बनकर,
निराश दिल को रात भर जगाती है।
-विनोद निराश, देहरादून (03-04-2023)