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कुछो ना सोहाला – अनिरुद्ध कुमार

रोजे भिनुसारे जिया छछना जाला,

चिड़इयों के बोल लागेला हाला।

 

बतिया ई मनमें लहर बनके बेधे,

जेने ताकींने बुझाला बा जाला।

 

दूरेसे अंजोरिया लुकछिप झाँके,

मनमारीं बइठी जुबां बड़का ताला।

 

गजबे खामोशी जियल लागे दूभर,

दुलम भइल पूछल निहारींला माला।

 

दुनिया बा बैरी जमाना बेगाना,

समझांई के अब कहाँ ऊँचा खाला।

 

जेकर दरद हवे उहे जानीं पीड़ा,

कइसे जीहीं सोंच मनवा डेराला।

 

आँखों लोराला बुझाता अंधेरा,

दुखड़ा सुनींके बदल देला पाला।

 

भोरो झकझोरे पिरीतो अकुलाये,

पूछेला सबसे कहीं काबा हाला।

 

डूब गइल नइया किनारा पर आके,

छछनेला छाती कुछो ना सोहाला।

– अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड

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