हृदय की सारी व्यथा-कथा,
मन के भावों का उद्वेग लिए ।
नदी का असीम आवेग समेटे,
बह चले नयनों से जो धारा ।
कभी वेदना व पीड़ा की यमुना,
कभी प्रेम और स्नेह की गंगा ।
बनकर बहे जो निर्मल चुपचाप,
अनकही भी कहे जो अपनेआप।
पश्चाताप की अग्नि में जले मन,
विरह वेदना से व्याकुल तन बदन।
बरसे बन ये सावन की घनी वर्षा ,
धूल जाए कलुषित मन के पाप।
नयनों से किसके नहीं बहा ये?
क्या कोई बिना रोए रहा कभी?
रूप-रंग,गन्ध से मुक्त होकर भी,
है गहरी भावाभिव्यक्ति की शक्ति।
है एक अद्भुत और सच्चा साथी,
छलक उठे दर्द व खुशी दोनों में।
कहाँ से आये कहाँ चला जाये ये,
आंसू सा कौन यहाँ प्रीत निभाए?
– प्रीति यादव, इंदौर, मध्यप्रदेश