ज़िंदगी जिंदादिली है क्या नुमाइश क्या हिज़ाब ।
कौन जाने कब कहां पर मौत कर दे बे-नकाब ।
चार दिन की ज़िंदगी है बात को समझो जनाब ।
हाथ में अब आपके बेकार हो या कामयाब ।
हो गए बर्बाद सारे जो कभी थे खुश मिज़ाज,
दिलफ़रेबी को भुलाने रोज़ पीते हैं शराब ।
चूड़ियों का नाद मानो बज रही हो जल तरंग ,
हर अदा में दिख रहा है हुस्न का जलवे शबाब ।
ज़ुल्फ थी काली घटा सी और आंखें थी कमान ,
पंखुरी से होंठ उसके और चेहरा था गुलाब ।
हम अनाड़ी पढ़ नहीं पाए थे आंखों की ज़बान,
इस तरह हमने गवा दी आतिशी की वो किताब ।
आज भी बेदार हैं कुछ दिलफ़रेबी के निशान ,
घाव कितने क्या गिनाएं और क्या देवें हिसाब ।
हुस्न ने ख़ुद दी दलीलें ,इश्क ने भेजा पयाम ,
इसलिए “हलधर” कहे हैं शे’र इतने लाज़वाब ।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून