स्वार्थ की अग्नि में जल गया नभांचल,
उर्वि हुई शुष्क.. मन-कूप हुआ मरुथल,
पल्लवों का क्रंदन..पुष्पों का हृद-मंथन,
केवल अश्रु में है आर्द्रता..जग वह्नि-वन।
आ! दे जा जल, भर दे आ,सर- सरिता,
सजीव के अधरों में खिल जाए स्मिता,
यह तपन…लोभ की यह असह्य क्रीड़ा,
नित्य विष सी घुल जाती असंख्य पीड़ा।
जिसे कहा जीवन.. उसे किया नाशित,
जिसे कहा अमृत.. उसे किया दूषित,
रे,मानव! क्या सृष्ट कर पाएगा सागर?
क्या तुझसे जन्म ले पाएगा एक अंबर ?
त्रास मेरा हो रहा…दिगंतर में घनीभूत,
बन जल-धारा बरसेगी..व्यथा अनाहूत।
– अनिमा दास (सॉनेटियर) कटक, ओड़िशा