प्यार की चाह से बढ़कर नही दौलत है क्या,
अब बसी दिल में तुम्हारे मुहब्बत है क्या।
भूल बैठी है जमाने मे अदब को दुनिया,
मान लेते ये खुदा खुद को मुसीबत है क्या।
हम कहाँ ढूँढते रहते हैं है खुदा को दर दर,
कृष्ण की चाह से बढ़कर कोई चाहत है क्या?
दिल मिरा हाजिर तेरे घर पर आने को,
इश्क अब तुमसे किया मान इबादत है क्या।
खूबसूरत अहसासों से बँधा जीवन है,
हाय तेरे बिन लगती ये फजीयत है क्या।
– ऋतु गुलाटी ऋतंभरा, मोहाली, चंडीगढ़