आज से मैं तुमसे ले रहा हूँ विदा,हे अप्सरा-मोहिनी !
यूँ हीं रह जाए पूर्वा पर पूर्णिमा की प्राचीन पृथ्वी
न ही गूंथे मल्लीहार कोई मोक्षाकांक्षी मालिनी
देवता के द्वार पर.. दूती न जलाए संध्यादीप भी ।
ना ले कभी केवट यहाँ किसी सुंदर सरि का नाम
अस्वीकार हो समस्त नील निशाएँ, हैम उषाकाल
कोई गहन गहरा क्षत का चिह्न न हो दृश्यमान
निरस्त हो राशिचक्र..ऋतुएँ न माँगें मुक्ति का पुष्पमाल।
पुरुरवा के प्रेम को न हो अनुभूत उर्वशी की उष्णता
मेनका के मेघालय में न करे विश्वामित्र रात्रि व्यतीत
तिलोत्तमा की काया न बने कभी श्वेत द्वीप की श्वेतता
हे,विगता ! आज से विस्मृति में स्मृति हो जाए अतीत।
हे, अप्सरा! अब न करो अर्पण जीर्ण वरमाल्य
स्खलन की स्मृति सभी न हो ज्वलन में निर्माल्य।
मूल रचना (ओड़िआ) – गिरिजा कुमार बलियार सिंह
अनुवाद – अनिमा दास, कटक, ओड़िशा