सिद्ध करना जिसे गीत गाकर पड़े,
प्राण ! ऐसा न होता गणित प्यार का ।
व्यक्त अक्षर नहीं ,शब्द भी यह नहीं
प्रेम पर्याय है मौन संगीत का ।
इक विधा हीन-सा सच सरल व्याकरण,
मात्र होता सदा है अरी ! प्रीत का ।
जो समर्पित हुआ वो भला क्या गने,
है प्रणति या हनन लोक व्यवहार का ।
सिद्ध करना जिसे गीत गाकर पड़े,
प्राण ! ऐसा न होता गणित प्यार का ।
यह हवन प्राण का प्राण तक ही रहे,
धुम्र है या नहीं व्यर्थ की बात है ।
साघना एक ऐसी कि जिसमें नहीं,
साध्य की या कभी अर्थ की बात है ।
प्यार है सच अगर ,है सहज श्वास-सा..
तत्व इसमें नहीं भार आभार का ।
सिद्ध करना जिसे गीत गाकर पड़े ,
प्राण ! ऐसा न होता गणित प्यार का ।
पाँव को री ! अचानक प्रणय पंथ में,
इक अलौकिक धरा लब्ध हो भाव की ।
धार है यह अजब या-कि मझधार है ,
डूबते को जरूरत नहीं नाव की ।
डूब इसमें गया, पार वो हो गया –
क्या करे वो मनन धार मझधार का ।
सिद्ध करना जिसे गीत गाकर पड़े,
प्राण ! ऐसा न होता गणित प्यार का…
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली