वसुंधरा में फिर से नव बहार आ गयी है।
जन जीवन में नवीन खुशियां छा गयी है।।
शिशिर ऋतु में हरित धरती वीरान थी।
जीर्ण-शीर्ण तरुओं से दुनिया मसान थी।।
बूढ़े पत्ते और फूलों का दर्द कौन समझे?
प्रकृति के प्राणी पुनर्जन्म चक्र में उलझे।।
हवाएं गीत गाती, लहराती, नाच रही है।
अपनी प्रेम और वेदना को भांप रही है।।
अमृतफल के डालियों में कोयल कुहूकी।
पुष्प पल्लव के खुशबू से वादियां महकी।।
हर्षित प्राणीजन कर रहे उत्सव की तैयारी।
पंख फैलाकर उड़ रही है तितलियां प्यारी।।
प्रणय की धुन बजा रहे हैं मतवाले मधुकर।
हवा में नाच रही है कलियां झूम-झूम कर।।
हरित आभा को देखकर चकित है संसार।
देखो चहूं ओर फैली है खुशियों का अंबार।।
करो सहृदय कविराज बसंत का गुणगान।
भर लो मन में भव्य कल्पनाओं की उड़ान।।
उल्लासित हो स्वागत करो बसंत बहार का।
मधुमास में पैगाम लेकर आया है प्यार का।।
– अशोक कुमार यादव, मुंगेली, छत्तीसगढ़