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नारी व्यथा – झरना माथुर

थक गई हूं, थक गई हूं ,

कर करके मैं थक गई हूं,

सुबह से रात तक, बच्चों से बुजुर्गों तक,

कर करके मैं थक गई हूं।

 

कभी नमक कम, कभी ज्यादा,करती क्या हो काम।

यही मेरा अस्तित्व ,यही मेरी पहचान,

सुबह से शाम तक किस्से तमाम,

सुन रही हूं, सुन रही हूं, करके मैं सुन रही हूं ।

 

मन में हूक उठी, चलो चल पढ ,सब छोड़ के, जहां हो मेरा जहान,

चल पड़ी अपने मकाम, ना कोई झंझट,

ना कुछ सुनना, जहां हो मेरा  अहान,

बस अब मैं चल पड़ी हूं, चल पड़ी हूं, अपनी धुन में चल पड़ी हूं ।

 

वाह क्या उमंग  है, क्या है नया एहसास,

स्वतंत्रता से भरा मेरा अपना मन का राज,

जो चाहूं मैं वो करु, ना चाहूं तो ना करूं,अब  सिर्फ मेरा ही काज,

खुश हो गई हूं, खुश हो गई हूं ,मन से मैं खुश हो गई हूं।

 

पल बीता,घड़ी बीती, बीते दिन और रात,

लगने लगा अकेलेपन का अहसास,

याद आने लगे अपनों के बीच के वो पल वो बातें ,वो कुछ खास,

सोच में पड़ गई हूं, सोच में पड़ गई हूं,उलझन में उलझ गई हूं।

 

लौट आई मैं अपने घर ,जो है मेरा संसार,

बच्चों का प्यार,पति का साथ,

यही था मेरा जीवन,यही है मेरा घर वार, बड़ों का आशीर्वाद का हाथ,

समझ गई हूं, समझ गई हूं , जीवन का सार।

– झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड

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