जिस दर पे मुश्किल पहरा था ,
दिल मेरा भी वहीँ ठहरा था।
सुर्ख लब जाम-ए-मय हो जैसे,
मरमरी बदन वो इकहरा था।
दरे-यार पे गुजार आये ज़िंदगी,
बेशक नसीब में मेरे सहरा था।
निगाहे-कातिल तो बेक़सूर रही,
मुजरिम मासूम दिल ठहरा था।
न गवाह न दलील बस सजा,
क्या कानून अन्धा बहरा था।
वही बने मुंसिफ़ जिस नज़र में,
गुनाहे-इश्के-निराश गहरा था।
– विनोद निराश, देहरादून