प्रेम तुझसे हो गया है,
बस यही है दोष मेरा ।
मैं जगत की भाँति निर्मम,
यदि महज व्यापार करती।
तो कदाचित ही कभी भी,
भूल कर भी प्यार करती ।
किन्तु मैं वैसी नहीं हूँ…
है यही संतोष मेरा ।
बस यही है दोष मेरा…..
बस यही है दोष मेरा….. ।
मैं न उत्सुक अब तनिक भी,
तुम मुझे समझो सुपावन ।
व्यूह रचना शब्द की मैं ,
कर न सकती चित्त भावन ।
तुम भले ही क्रोध कर लो…
मर गया पर रोष मेरा ।
प्रेम तुझसे हो गया है ।
बस यही है दोष मेरा ।।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका ,नई दिल्ली