मनोरंजन

जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि – मुकेश कुमार

Neerajtimes,com- पंच तत्वों से गठित नश्वर देह पाकर हर आत्मा अपनी जीवनयात्रा आरम्भ करती है। इस यात्रा के दौरान आत्मा को अपने नाम, धर्म, कर्म, संस्कार, व्यवहार, जीवन शैली, पारिवारिक पृष्ठभूमि व लौकिक सम्बन्धों के आधार पर अपने वर्तमान जन्म तक सीमित रहने वाली अस्थाई पहचान मिलती है जिसके आधार पर जीवन संचालित करते करते आत्मा अपने वास्तविक सत्य स्वरूप की स्मृति से परे होती जाती है।

भैतिकता और इन्द्रिय सुखों के भोग की इच्छाओं पर आधारित जीवन शैली के कारण स्थाई व आध्यात्मिक पहचान स्मृति पटल से ओझल होना तो स्वाभाविक है। लेकिन हम अपनी यह शाश्वत और सत्य पहचान केवल आध्यात्मिक समझ अथवा ज्ञान का अभाव होने के कारण नहीं भूलते, बल्कि हमारे नाम, उम्र, लिंग, रूप, बाहरी व्यक्तित्व, शिक्षा, पेशा, सम्बन्ध, राष्ट्रीयता, भाषा, धर्म आदि जैसी अनेक भौतिक पहचानें भी हमें जीवन पर्यन्त अपनी ओर खींचती रहती है । परिणाम स्वरूप हम अपनी ही सत्य, शाश्वत और स्थाई आध्यात्मिक पहचान से विस्मृत होने लगते हैं ।

प्रत्येक जन्म में धारण किए गए शरीर के माध्यम से अर्जित विभिन्न भौतिक पहचानें जीवन पर्यन्त हमारे साथ चलती है । भौतिक पहचानों के अनेक आवरण ओढ़ने के कारण प्रत्येक जन्म के साथ साथ आत्मा की आध्यात्मिक पहचान अनेक परतों के नीचे दब जाती है। अपने शरीर, इन्द्रियों, उससे मिलने वाले क्षणिक सुखों तथा भौतिक पहचान के अधीन होने के फलस्वरूप आत्मा अपनी समस्त आध्यात्मिक शक्तियां गंवाते गंवाते थकने लगती है जिसके कारण जीवन में सच्ची खुशी, आनन्द और शांति का अभाव महसूस होता है।

स्वयं का आत्मिक स्वरूप विस्मृत होने के कारण भौतिक वस्तुओं, लौकिक सम्बन्धों, सामाजिक प्रतिष्ठा, आर्थिक सम्पन्नता आदि चीजों से हमारी आसक्ति दिन प्रतिदिन गहरी होती जाती है जिससे भी हमारी आध्यात्मिक ऊर्जा का क्षय होता है। आत्मा अपने आप में सतोगुणी है अर्थात् ज्ञान स्वरूप, शांत स्वरूप, पवित्र स्वरूप, प्रेम स्वरूप, सुख स्वरूप, आनन्द स्वरूप और शक्ति स्वरूप है। इन गुणों पर निर्भर रहने से ही जीवन सुखी बनता है। किंतु भौतिक आकर्षण और इन्द्रियों से मिलने वाले क्षणिक सुखों की लालसा रूपी अजगर ने इन सभी गुणों को निगल लिया है ।

अनेक जन्मों की यात्रा करके हम आज अपनी शाश्वत आध्यात्मिक पहचान को पूर्णतः खो चुके हैं। इसलिए आज का मनुष्य जन्म लेने के बाद समझ पकड़ते ही अनेक प्रकार के मानसिक तनावों में घिर जाता है, उसका जीवन समस्याओं का जंजाल बन जाता है, इन्द्रियां अनियंत्रित रहने लगती है, उसके जीवन में अवसाद रूपी बादल सदा उमड़े रहते हैं और वह स्वयं को एक थका और हारा हुआ समझने लगता है।

ऐसी विकट स्थिति में केवल परमात्मा ही हमें हमारी वास्तविक पहचान बताता है कि हम शरीर नहीं बल्कि आत्मा हैं। आत्मा का दिव्य ज्ञान देकर हमारे भीतर सही समझ, विवेक और बुद्धि केवल परमात्मा ही जागृत करता है । परमात्मा ही हमें एहसास दिलाता है कि इतने जन्मों की लम्बी यात्रा करने के बाद अब हमें फिर से आत्मा को शक्तिशाली और गुण सम्पन्न बनाना है ।

हमारा सत्य सनातन और स्थाई आध्यात्मिक परिचय यही है कि हम निराकार ज्योति स्वरूप आत्माएं हैं जो अपने तन रूपी साधन की संचालक हैं, हम मुख द्वारा बोलते हैं, कानों द्वारा सुनते हैं, आंखों द्वारा देखते हैं। आत्मा का निज गुण अथवा स्वधर्म शांति है। आत्मा निराकार ज्योति बिंदु स्वरूप है, आत्मा सतोगुणी है अर्थात सात गुणों (ज्ञान, शांति, पवित्रता, प्रेम, सुख, आनन्द और शक्ति) का पुंज है। यह पहचान यदि स्वाभाविक रूप से स्मृति में रहे तो आत्मा के सर्व गुण और सर्व शक्तियों से सारा जीवन सुख, शांति और आनन्द से भरपूर रहता है ।

हम अपनी आध्यात्मिक पहचान भूले हुए हैं या नहीं, इसकी परख करने की सीधी और सहज विधि है कि एकान्त में बैठकर जब हम अपने विचारों का अवलोकन व अन्वेषण करेंगे अर्थात आत्मदर्शन करेंगे तो पाएंगे कि हमारा मन किसी ना किसी सांसारिक वस्तु, किसी लौकिक सम्बन्ध या धन, सम्पत्ति और वैभव के बारे में ही चिन्तन कर रहा होता है। अर्थात् हम उन चीजों के प्रति आसक्त हो गए हैं जो विनाशी है और हमारी मृत्यु होते ही हमसे छूटने वाली हैं। यही आसक्ति हमारे मन में भौतिक वस्तुओं और लौकिक सम्बन्धों से बिछड़ने का भय जागृत करके हमारा आत्मिक स्वरूप भुलाने का कारण बनती है।

इसलिए प्रत्येक कर्म करते समय यह स्मृति जागृत रखनी होगी कि मैं एक ज्ञान स्वरूप, शांत स्वरूप, पवित्र स्वरूप, प्रेम स्वरूप, सुख स्वरूप, आनन्द स्वरूप और शक्ति स्वरूप आत्मा हूं। यह स्मृति अभ्यास में लाने से हम अपनी बची हुई आत्मिक ऊर्जा को और नहीं खोएंगे । साथ ही हमें सर्व गुणों और सर्व शक्तियों के मूल स्रोत परमात्मा से भी मन बुद्धि से जुड़ना होगा अर्थात अपने मन को परमात्मा में लगाना होगा, तभी हम इन दिव्य गुणों और शक्तियों से स्वयं को पुनः सम्पन्न बना सकेंगे।

इसके साथ साथ औरों को भी उनकी आत्मिक पहचान देकर उन्हें भी दिव्य गुणों से लाभान्वित करने वाली प्रवृत्ति हमें अपने भीतर विकसित करनी होगी । आध्यात्मिक ज्ञान अथवा समझ पर आधारित संस्कार जगाकर स्वयं के आत्म स्वरूप और आत्म स्मृति में रहते हुए औरों को आत्मिक स्मृति दिलाने का प्रयास ही स्वयं के साथ-साथ औरों में भी सकारात्मक परिवर्तन लाएगा जो हमारी आत्मिक स्मृति को शक्तिशाली बनाएगा। यह आध्यात्मिक उन्नति ना केवल स्वयं का और दूसरों का जीवन सुख, शांति और आनन्द से भरपूर बनाएगी बल्कि सम्पूर्ण विश्व को सुन्दर और स्वर्णिम रूप प्रदान करेगी।

आध्यात्मिक उन्नति से अर्जित किए गए अथवा जागृत किए गए समस्त गुण ना केवल इस जन्म में साथ रहेंगे बल्कि आने वाले अनेक जन्मों तक हमें सुख प्रदान करेंगे। साथ ही साथ हर जन्म में हमारी भौतिक पहचान भी इससे लाभान्वित होकर चिरकाल तक के लिए सुन्दर और सुदृढ़ बनी रहेगी। इसलिए हमें अपनी देह पर आधारित पहचान कुछ देर के लिए भूलकर स्वयं को अपने वास्तविक, सत्य, शाश्वत और आध्यात्मिक स्वरूप की स्मृति में बिठाने का अभ्यास करना चाहिए। यही राजयोग का अभ्यास कहलाता है जिसे रोज करने से स्वतः ही आत्मा में दिव्य गुणों की पुनर्स्थापना होती है, जिसके प्रभाव से हमारी भौतिक पहचान भी दिन प्रतिदिन परिष्कृत और संशोधित होने लगती है। राजयोग के अभ्यास द्वारा अपनी सत्य, स्थाई, शाश्वत और आध्यात्मिक स्वरूप की नैसर्गिक स्मृति में रहना ही सुखी जीवन का मूल आधार है।

– मुकेश कुमार मोदी, बीकानेर, राजस्थान, मोबाइल नम्बर – 9460641092

Related posts

राजश्री साहित्य राज्य शिक्षादूत अलंकरण सम्मान से सम्मानित हुए शिक्षक अशोक कुमार यादव

newsadmin

मंच पर गीतों की होली – प्रियदर्शिनी पुष्पा

newsadmin

ग़ज़ल (हिंदी) – जसवीर सिंह हलधर

newsadmin

Leave a Comment