रावण राम बने फिरते हैं,
सीताएँ घबराती हैं ।
त्रेता युग के मारीचों को,
कलियुग में भी पाती हैं ।।
सोने की मृगछाला ओढ़े,
पर्णकुटी के पास फिरें ।
कामुकता-लालच में डूबे
अपराधों से रहे घिरें ।।
आदर्शों के मोह जाल में
वनिताएँ फँस जाती हैं ।
रावण राम बने फिरते हैं
सीताएँ घबराती हैं ।।
भूख- गरीबी लाचारी में
गुड़िया कैसे मुस्काए।
मजबूरी में घुट-घुट करके
जीना उसको पड़ जाए।।
कोमल कलियाँ बाग़वान को
देख-देख कुम्हलाती हैं ।
रावण राम बने फिरते हैं,
सीताएँ घबराती हैं ।।
नहीं सुरक्षित अब भी नारी,
गाँव-शहर या अपना घर।
सोच नहीं बदली मानव की
काट रहे हैं उसके पर ।।
कोयल करके काँव-काँव
कागा जैसे चिल्लाती हैं ।
रावण राम बने फिरते हैं,
सीताएँ घबराती हैं ।।
– नीलिमा मिश्रा, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश