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पार लगायें – अनिरुद्ध कुमार

भेदभाव में जीवन पलता,

अपना हीं अपनों को छलता।

हर कोई को मिली महारत,

हरपल जीवन कितना खलता।

 

जिधर देखिये नफरत जलता,

हर कोई हाथों को मलता।

दाँव-पेंच की घर-घर बातें,

कोई कहाँ किसी से मिलता।

 

भ्रष्टाचार लगता खिलौना,

अब माहौल कितना घिनौना।

जीवन का पथ हुआ कटीला,

मानव लगता कितना बौना।

 

मानव जीवन लगता अदना,

सबकी चाहत माल गटकना।

मनभावन लगता सब नारा,

जनजन देखे हर-पल सपना।

 

झिर-झिर बहती गर्म हवायें,

उलझा मन क्या दर्द सुनाये।

तूफानों से हर-पल लड़ना,

मालिक हीं अब पार लगायें।

– अनिरुद्ध कुमार सिंह

धनबाद, झारखंड

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