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कितने दीये जलाये – विनोद निराश

प्रार्थनाएं तो मैंने भी खूब की थी ,

शायद कोई खोट रहा होगा नीयत में,

जो कबूल न हो सकी,

वर्ना सुनते आए है मन्नतें कबूल होती है।

 

 

कितनी मूर्तियों के सामने,

कितने दीये जलाये मगर

आज खुद जलता रहता है मन ,

टिमटिमाते दीये की लौ जैसा।

 

आज भी महसूस कर लेता हूँ,

उन दीयों की लौ में तुम्हारा चेहरा,

प्रज्वलित लौ में जैसे मुस्कुरा रही हो,

बिना कुछ कहे, कुछ कह रही हो।

 

कब से दीये में जलती लौ ,

अनवरत जलती जा रही है ,

उजाला तो खूब हो रहा है बाहर

मगर उरतल निराश करती जा रही है।

 

फिर आ गया वही अप्रैल माह,

याद आ गई सब पीड़ाएँ,

हुक, क्रंदन, आशा, निराशा,

कांपते हाथों से छूटता तुम्हारा हाथ।

 

मुसलसल सालता तुम्हारा दर्द,

तन्हाई में उठती हुक,

दांतों तले दबे घायल होंठ,

ज्वार-भाटा सी स्मृतियाँ कहाँ भूला हूँ मैं।

– विनोद निराश, देहरादून

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