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आज भी याद है मुझे – विनोद निराश

आज भी याद है मुझे,

वो चुड़ीदार धवल पायजामा,

सुर्ख लम्बा कुर्ता,

काँधों पर बिखरे खुले घने रेशमी केश,

और वो पश्मीना शॉल।

 

तुम प्रथम दीर्घा में बैठी,

अपनी मध्यमा, तर्जनी उँगलियों को,

अपनी रुखसार का अवलम्ब बनाकर,

एक दम मौन मुझे निहारती हुई,

मेरे शेअरों में खोई सी बैठी हुई ।

 

हर शेअर पर वाह वाह की दाद गैरो की ,

और तुम्हारा मौन व्यवहार ,

मेरी उत्सुकता को कुरेद रहा था ,

मगर वो फिरदौसी तबस्सुम भी,

मुहब्बत का लहजा बयां कर रहा था।

 

मैं हर्फ़-दर-हर्फ़ तुम्हारे रू-ब-रू ,

हाले-दिल ग़ज़ल के अंदाज़ में कहता रहा ,

जो तुम्हे सौतन सरीखी लग रही थी ,

क्यूंकि तुम्हारे तबस्सुम में,

गैर का तसव्वुर घूम रहा था।

 

तुम ग़ज़ल में उलझी रही ,

मैं तुम्हारे तसव्वुर में डूब गया ,

तुम मुझसे बेख्याल सी रही ,

मैं दरिया सा बहते-बहते

तुम्हारे ख्यालों में उतरता चला गया।

 

जन्नत से हंसीं झील सी आँखों का

वो मखमली अंदाज़,

लबे-शीरी से टपकती सुर्ख मय की बूंदे,

मदहोशी का आलम जाहिर होता रहा ,

शेअर-दर-शेअर मुसलसल बनता रहा ।

 

रुखसती के बाद तुम,

देर तलक याद आते रहे,

ख्याल बनते रहे, ख्वाब आते रहे,

तेरे लबों के जामे-मय पीते रहे ,

और बहक-बहक निराश सँभलते रहे।

– विनोद निराश, देहरादून

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