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किचन के बर्तन – झरना माथुर

आज सुबह जब मैं किचन में पहुँची,

तो बर्तन के थे बदले हुए अंदाज,

कुकर से मैने तन कर और अकड

के पूछा

क्यो भई क्यो अक्ड़े हुए है सब आज,

उठ उठ कर सीटी बजाते हो तुम हरदम,

धुआ छोड़ते हो ऐसे बुरे है तुम्हारे करम,

कुकर बोला मै अलग हूँ मुझमे है दम,

सिर्फ मैं ही करता हूँ सबसे अधिक परिश्रम।

 

तभी कड़ाई भी बेझिझक होकर बोली,

न रे न मैं हूँ तुझसे अधिक खास,

अगर मैं न होती तो न बन पाती पूरी

तुम होते एकदम अकेले कोई न होता तुम्हारे पास।

 

तभी ठक-ठक करता चकला आया,

बेलन भी हमदम उसके साथ आया,

हम दोनो न होते तो कैसे बन पाता,

छोले पूरी का साथ जो सबको भाता,

दोनो रह जाते तुम दोनो बिल्कुल अकेले

भूखे रह जाते खाने आये सारे मेहमान।

 

इन सबकी मैं बातें सुनकर हो गयी हेरान,

कहते तो ये सही है टूटा भ्रम मैं थी नादान,

हाथ जोरकर किया प्रणाम ये थे मेरे सहयताकार,

जिसके बिना मै हूँ अधूरी इन्हीं से मैं हूं कलाकार,

आज सुबह जब मैं किचन मे पहुँची,

तो बरतनों के थे बदले हुए अन्दाज ।

– झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड

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