लालच, लोभ ,मोह, बीमारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
दकियानूसी सोच हमारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
कर्तव्यों के सरिया पत्थर हर खम्बे से दूर खड़े हैं ,
अधिकारों की मारामारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
देश धर्म का भान नहीं है झंडे का सम्मान नहीं है ,
राजनीति की ये अय्यियारी चारों खम्बों से चिपकी है ।
चारो में रक्षक बैठे है चारो में भक्षक भी बैठे ,
अपनी अपनी कारगुजारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
एक महामारी ने यारो दर्पण सबको दिखलाया है ,
दवा, हवा पर भी मक्कारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
सच कहना मेरी मजबूरी कड़वा है पर बहुत जरूरी ,
थोड़ी थोड़ी सी मक्कारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
धृतराष्ट्र के हाथ तराजू कैसे न्याय युधिष्ठिर पाए ,
अंधे युवराजों की यारी चारो खम्बो से चिपकी है ।
बाबा ने आरक्षण हमको दस वर्षों के लिए दिया था ,
इस को ढोने की लाचारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
संविधान निरपेक्ष किया तो वक्फ बोर्ड क्यों बचे हुए हैं ,
खास धर्म की पैरोकारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
जाति पाति के मकड़ जाल ने पूरे भारत को जकड़ा है ,
मज़हब की “हलधर” चिंगारी चारो खम्बों से चिपकी है ।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून