अगिनत शिलाओं के क्षरण से
रेत आती है नदी तट पर,
अट्टालिकाएं निर्मित कर रहे है
हम उसे बेरहमी से बटोर कर।
जल प्रदूषित हो गया है मानव
वतन की सारी नदियों का,
ऋण चुकाओगे कब बताओं
निज धरा के बेतहाशा दोहन का।
खूब भर रहे है घर वही जो
आज सक्षम है यारों जहां में,
रे मानव खूब दौलत है बटोरी
बांध लें जाएगा उस जहां में।
चैन अमन सुकून खोया अरे
खोया प्रकृति के श्रृंगार को,
बता अब बटोही क्या करेगा
क्या दे जाएगा नौनिहाल को।
– संगम त्रिपाठी, जबलपुर मध्यप्रदेश
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