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प्रणय गीत — अनुराधा पाण्डेय

हाँ यही दो नयन, हाँ यही दो नयन

तोड़ कर वर्जना भेदते प्राण‌ मन ।

 

इन दृगों पर भला जोर चलता कहाँ

चौर्य करते हृदय ये अनायास ही ।

स्वप्न बुनते अमित नेह अनुराग के,

तन सदा से रहा भाव का दास ही ।

पाटते ये हृदय की अकथ दूरियाँ,

रोक सकता भला पाँव कैसे मदन !

हाँ! यही दो नयन–

 

पंथ प्रेमिल हृदय से हृदय तक गढ़े,

छोड़ द्वय को गये ये बना कर पथिक ।

क्षण विरह क्षण मिलन क्रम रहे आयु भर,

रोध व्यतिक्रम न संभव फले फिर तनिक ।

चाह कर भी उभय मुक्त इससे न हों …

प्रेम से कर शुरू प्रेम तक है अयन ।

हाँ! यही दो नयन–

 

बिम्ब तेरा उतारा प्रथम चक्षु ने,

और भेजी पुनः वो ललित सूचना ।

तब प्रणय भान मेरे हृदय को हुआ,

अंकुरित हो गई चित्त में रंजना ।

भाव कोमल जगे बढ़ गई धड़कनें,

प्राण ! तेरा किया इस विहग ने चयन ।

हाँ ! यही दो नयन,हाँ! यही दो नयन,

तोड़ कर वर्जना भेदते प्राण मन ।

अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली

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