हाँ यही दो नयन, हाँ यही दो नयन
तोड़ कर वर्जना भेदते प्राण मन ।
इन दृगों पर भला जोर चलता कहाँ
चौर्य करते हृदय ये अनायास ही ।
स्वप्न बुनते अमित नेह अनुराग के,
तन सदा से रहा भाव का दास ही ।
पाटते ये हृदय की अकथ दूरियाँ,
रोक सकता भला पाँव कैसे मदन !
हाँ! यही दो नयन–
पंथ प्रेमिल हृदय से हृदय तक गढ़े,
छोड़ द्वय को गये ये बना कर पथिक ।
क्षण विरह क्षण मिलन क्रम रहे आयु भर,
रोध व्यतिक्रम न संभव फले फिर तनिक ।
चाह कर भी उभय मुक्त इससे न हों …
प्रेम से कर शुरू प्रेम तक है अयन ।
हाँ! यही दो नयन–
बिम्ब तेरा उतारा प्रथम चक्षु ने,
और भेजी पुनः वो ललित सूचना ।
तब प्रणय भान मेरे हृदय को हुआ,
अंकुरित हो गई चित्त में रंजना ।
भाव कोमल जगे बढ़ गई धड़कनें,
प्राण ! तेरा किया इस विहग ने चयन ।
हाँ ! यही दो नयन,हाँ! यही दो नयन,
तोड़ कर वर्जना भेदते प्राण मन ।
अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली